राम के आदर्श: भारतीय संस्कृति और सभ्यता के चरम प्रतीक

मैं 27 साल का हो गया लेकिन लगभग 20 वर्ष की चेतन स्मृति में ऐसा राममय भारत मैंने नहीं देखा। 1990-92 के किस्से जब हमने पूर्वजों से सुनते हैं तो रूह कांप जाती है  .... राम मंदिर आंदोलन के समय भारत राम राम के घोष में डूबा था लेकिन तब अंतर्विरोध भी बड़े थे। हिन्दुओं का एक विशाल समाज सेक्यूलरी नींद में था। 1992 में ढांचे के ध्वंस के बाद राम मंदिर की अंतर्धारा तो बहती रही किन्तु सत्ता में बैठी सर्वथा विरोधी शक्तियों ने उस अंतर्धारा को नदी का प्रकट रूप न होने दिया। 2014 के बाद स्थितियाँ बदलने लगीं। आज देश राममय हो उठा है।  पूर्व से पश्चिम ,उत्तर से दक्षिण पूरा भारत अपने रामलला के आगमन में पलकें बिछाए हुए है ।  अद्भुत है इस रामायन पर चलना।   राम ने कलयुग में एक नया सेतुबंध किया है-- उत्तर से दक्षिण और पूरब से पश्चिम तक। 


यह कितना सुखद और आध्यात्मिक है कि भारतीय सभ्यता ने अपने पुनरुत्थान और प्रस्थान के लिए जिस चरित्र को चुना, वह राम हैं। ऐसा नहीं है कि राम से पहले भारत में महापुरुष/ देवी देवता  नहीं हुए। अनेक हुए। लेकिन राम एक आदर्श बन गए। मर्यादा, त्याग, तितिक्षा, तप, प्रेम, धैर्य ,करुणा, शौर्य और धर्म का वैसा विग्रह भारत ने पहले नहीं देखा था।

 सनातन के सातत्य  में जिस महाग्रंथ का पारायण हम युगों से करते आ रहे हैं, राम उस ग्रंथ के प्रथम अध्याय बन गए। राम के बिना भारतीय जीवनधारा की कल्पना पूरी नहीं होती। वह रामयुग को प्रणाम कर आगे बढ़ती है। राम ने हजारों वर्ष पूर्व जिस आदर्श की स्थापना की, उससे बड़ा आदर्श हम नहीं बना सके, और न ही कभी बना पाएंगे । आदर्श के सभी उपमान रामतत्व में समा गए। इसलिए जब भारतीय सभ्यता ने हजार वर्ष के संघर्ष और जय-पराजय के बाद अपना प्रस्थान बिंदु चुना तो उसे राम का ही  ध्यान आया। वह राम का मंदिर बनाने को उमड़ पड़ा। रामो विग्रहवान धर्म:.. यह वाल्मीकि  कहते हैं और स्वयं राम क्या कहते हैं...

धर्ममर्थं च कामं च पृथिवीं चापि लक्ष्मण।
इच्छामि भवतामर्थे एतत प्रतिश्रृणोमि ते।।

लक्ष्मण! मुझे अपने लिए राज्यभोग की कोई कामना नहीं है। कभी नहीं थी।मैं तो धर्म, अर्थ, काम और पृथ्वी के राज्यसुख केवल तुम लोगों के लिए चाहता हूॅं।

ऐसा अपरिग्रही, निष्काम व्यक्ति ही उस राज्य की स्थापना कर सकता था, जिसका उदाहरण हम आज तक देते हैं। रामराज्य हमारी सबसे बड़ी एषणा ( अभिलाषा ) रही। एक ऐसी राजव्यवस्था जो आदर्श हो। न जाने कैसी तो होगी! कौतुक में हम डूबे रहे! उस व्यवस्था की कामना आज भी है। हम जानते हैं कि वैसी व्यवस्था दुबारा संभव न होगी क्योंकि उसके लिए राम को विग्रह से मनुष्य रूप में आना होगा। किन्तु विग्रह में भी वही राम प्रतिष्ठित हैं। उस विग्रह की प्राण-प्रतिष्ठा इसी अर्थ में सांकेतिक और युग परिवर्तन की साक्षी है।

राम और कृष्ण अनन्य हैं।‌ यों तो हम सभी देवी-देवताओं को सगुण रूप में देखते पूजते हैं परन्तु राम और कृष्ण मनुष्य, अनन्य साधारण मनुष्य रूप में आते हुए महामानव के रूप में प्रतिष्ठित हो जाते हैं। ऐसे मनुष्य जो अपनी मनुष्यता से देवत्व में संतरण करते हैं और पुनः पुनः मनुष्य रूप में प्रकट होने की संभाव्यता को बनाए रखते हैं। राम कृष्ण से पहले आते हैं। राम सीधी रेखा पर चलते हैं। वैसा दृढ़निश्चयी, सत्यनिष्ठ, अडिग मार्गी, निर्भ्रांत, वीर, धर्मात्मा उनसे पूर्व कोई नहीं। उनके बाद भी रामसदृश दूसरा नहीं। भगवान कृष्ण भिन्न अर्थों में अद्वितीय हैं। इसीलिए राम भारतीय सभ्यता के इस नए युग के नायक हैं। उनकी ही छत्रछाया में इस देश को रहना होगा। राम ही इस नए पथ के प्रदर्शक हैं।

दो दिन पहले भारत श्रीराम के जयघोष से गूंज उठा। देश के गांव-गांव, शहर-शहर में भगवा ध्वज लहराने लगे। लगभग  पांच शताब्दियों के बाद भगवान राम की प्रतिमा अयोध्या जी के नवनिर्मित मंदिर में प्रतिष्ठित हुई। भारत के कोटि-कोटि जनों ने माना कि वह प्रतिमा नहीं लौटी। प्रतिमा के रूप में स्वयं राम ही लौट आए। संभवतः यह अन्य उदाहरण भी है इस बात को समझने का कि हमारे लिए देव प्रतिमा या विग्रह के क्या अर्थ हैं।‌ किन्तु यह अत्यंत विचारणीय है कि ऐसी  राममयी लहर कैसे संभव हो पा रही है ? श्रीराम में वह कौन सी शक्ति है जो पूरे देश को अयोध्या जी  के मंच पर ले आई है। ऐसा भारतव्यापी व्यक्तित्व भला किस मनुज, किस देव का है।‌   राम लौट आए हैं। वह विग्रह भर में व्याप्त नहीं। घट-घट में, हृदय हृदय में, चेतन अवचेतन स्मृति में दिव्यतम मनुष्य के रूप में स्थित हैं। तभी भारत हर्ष में डूबा है। उसके लिए त्रेतायुग भूत का सत्य नहीं। अनुभूति का सातत्य है।  

राम से यह अनिर्वचनीय प्रीति क्यों है? क्यों राम युगों-युगों से हमारे हृदय को मथते आ रहे हैं? क्योंं हर बार हम जीवनादर्शों‌ की खोज करते हुए हजारों वर्ष पीछे लौट कर राम पर ठहर जाते हैं और क्यों आज भी किसी मर्यादित मनुष्य में राम की ही आभाओं का अंश देखते हैं? इसलिए कि राम पूर्णता के प्रतीक हैं। वह अपने जीवनकाल में अनेक आदर्श उपस्थित करते हैं। वह ज्ञान की खोज में रात्रि के अंधकार का वरण नहीं करते। वह जीवन के व्याकुल करते प्रश्नों के उत्तर ढूंढ़ने के लिए चुपचाप गृहत्याग कर नहीं जाते। जीवन ज्वार में बहते हुए उनके यथेष्ट उत्तर खोजते हैं। वह धरती के विशालतम साम्राज्य का सिंहासन एक क्षण में ठुकरा कर गहन कान्तार में चले जाते हैं। रोते-बिलखते पुरवासियों को देखकर उनका हृदय भी रोता है किन्तु उन्होंने धीरज के बांध से उसे बांध रखा है। वह तमसा के तट पर थके हारे निढाल पड़े अयोध्यावासियों को देखकर क्लान्त हो उठते हैं। लक्ष्मण और सीता से कहते हैं कि मोह के इस दुर्निवार बंधन‌ से मुक्ति का एकमात्र रास्ता त्याग है। इनके जागने से पहले नदी पार कर उस महारण्य में धंसो! 

अतो भूयोपि नेदानीमिक्ष्वाकुपुरवासिन:।
स्वपेयुरनुरक्ता मा वृक्षमूलेषु संश्रिता:।।

राम से बड़ा त्यागी कौन हुआ?

वह ऋषियों के चरण स्पर्श करते हैं।मार्ग पूछते हैं।निषादराज से कहते हैं कि आप भरत समान भ्राता हैं किन्तु वनवास पर वही स्वीकार करूंगा जो किसी वनवासी के अधिकार में होता है। राम का संपूर्ण जीवन एक ऐसे संतुलन से बंधा है जो अन्य कहीं नजर नहीं आता। वह एक आदर्श पुत्र, आदर्श भाई-सखा, आदर्श पति, आदर्श राजा, आदर्श योद्धा हैं। वह केवल धर्म को देखते हैं। धर्म को ही धारण करते हैं। अवश्यंभावी मृत्यु से मुक्ति के मार्ग नहीं खोजते। उसे जीवन का ही अभिन्न भाग मानकर स्वीकार करते हैं। संयोग और वियोग को स्थितप्रज्ञ होकर देखते हैं। बल्कि वियोग को ही अनिवार्य मानते हैं।

यथा काष्ठं च काष्ठं च समेयातां महार्णवे
समेत्य तु व्यपेयातां कालमासाद्य कंचन
एवं भार्याश्च पुत्राश्च ज्ञातयश्च वसूनि च
समेत्य व्यवधावन्ति ध्रुवो ह्येषां विनाभव:

संयोग नित्य नहीं है! वियोग अवश्यंभावी है! 

राम इस परिवर्तनशील जगत को अपनी अचूक दृष्टि से देखते हैं। इसकी क्षणभंगुरता का उन्हें भान है। वह मृत्यु पर विजय प्राप्त करने की कामना नहीं करते। जीवन को समग्रता में जीने का उदाहरण बनते हैं। विनम्रता में उतना ही झुकते हैं, जितना झुकते हुए मान का मेरुदंड न टूटे। प्रिया का हरण करने वाले को भी प्रायश्चित और क्षमायाचना के अवसर देते हैं।लोक में वरदान की प्रतिष्ठा के लिए बालि को वृक्ष की ओट से मारते हैं। शांत चित्त उसकी भर्त्सनाएं सुनते हैं। फिर उससे नि:संकोच कहते हैं कि अपने छोटे भाई की पत्नी को उठा ले जाने वाला व्यक्ति जीवित रहने का अधिकारी नहीं है। राम ने राक्षसों का वध किया। वह करुणावत्सल हैं और रणकर्कश भी हैं। 

अनिमेष राम विश्वजिद्दिव्य शर भंग भाव
विद्धांग बद्ध कोदंड मुष्टि खर रुधिर स्राव

राम में कैसी कृतज्ञता है। वह मरणासन्न जटायु को हृदय से लगाकर पिता के आसन पर प्रतिष्ठित करते हैं। स्वयं उसका दाह संस्कार करते हैं। वह कपिदल से भ्रातृवत हो जाते हैं। यहां तक कि सुग्रीव जब राम के उपकारों को भूल कर रागरंग में डूब जाते हैं तो वह धैर्यपूर्वक प्रतीक्षा करते हैं। उनका धैर्य तभी टूटता है जब वह सोचते हैं: जानकी हाय उद्धार प्रिया का हो न सका! वह सुग्रीव को धर्ममार्ग पर लाने के लिए संकेत मात्र करते हैं। वह रावण विजय के साथ ही अयोध्या लौटने को तत्पर हैं। स्वर्ण मंडित लंका को धूलि के समान देखते हैं। उनके चित्त में भरत हैं अयोध्या का सिंहासन नहीं! 

ऐसे राम में भारत के कोटि-कोटि जनों की अनन्य आस्था है। जीवन के सभी प्रसंगों में वह उत्तर बन कर सामने आते हैं। कभी पीछे नहीं हटते। आदर्श के लिए सीता का भी त्याग कर देते हैं। उस दंश को आजतक भोग रहे परन्तु जानते हैं कि इस भवारण्य में जब जब धर्म का विग्रह खोजा जाएगा, वह सबसे पहले हमारे ध्यान में आएंगे। राम के जीवन में नाटकीयता कहीं नहीं है। वह प्रेम में पगे हैं। वैसा पुरुषार्थी दूसरा नहीं मिलता। वह धीरज के अद्वितीय उदाहरण हैं। वह तरलता में बहती हुई नदी के समान हैं।जीवन को उसके समस्त विरोधाभासों, संघर्षों के साथ यथावत लेते हैं। विवेक को सर्वोपरि रखते हैं। इसलिए हम राम से मुक्त नहीं हो पाते हैं। वह देवता तो हैं ही--मनुष्य उससे पहले हैं। उनका देवरूप उस महान मनुष्य की जीवनगाथा से प्रकट होता है, जिसे सुनते, गाते हुए आज भी हमारी आंखें झरने लगती हैं। हम राम को अवतार मानते हैं परन्तु पहले एक राजा, एक मनुष्य मानते हैं। ऐसा राजा ऐसा मनुष्य जिसका दूसरा उदाहरण हमें नहीं मिलता।

आश्चर्य है कि इस प्रवाह में जब पूरा देश बह रहा तब कुछ विद्वान लोग विधवा विलाप में डूबे हुए हैं। उनके लिए यह मंदिर व्यर्थ है। उनका साहित्य कहता है कि स्वयं राम रो रहे। और आज के समय में हिन्दू समाज का आचरण रामाचरण के सर्वथा विपरीत है। यानी..यह उत्सव आनंद और रुद्ध कंठ से प्रणाम कर रहे करोड़ों करोड़ लोग सत्य नहीं हैं। आश्चर्य है कि जिसके हृदय में राम विराजते ही नहीं वह भला इस उत्सव में क्यों डूबे? वह राम तत्व की अनुभूति कर पा रहा तभी तो सजल नेत्रों से प्राण को प्रतिष्ठित होते देख रहा। अन्यथा वह तटस्थ रहता। स्पष्ट है कि अंधकार उन कोटि-कोटि जनों‌ के हृदय में नहीं बल्कि उनके हृदय में अवश्य है, जो आज क्रंदन कर रहे। हमारे पवित्रतम देवगृह का ध्वंस कर वहां मसीत बनाने वाले आक्रान्ता को किसी तहजीब का हिस्सा बना कर अयोध्या में इस पुनर्निर्माण पर छाती पीटने वाले कौन हैं? वह जो भी हैं इस उत्सव को अनुभव करने की उज्ज्वलता उनमें नहीं है।

Er. Ritesh Kumar Bhanu

Ritesh Kumar Bhanu is an India-based influencer, digital marketer, blogger, and founder of Tech Ritesh Insight. He started his journey in digital marketing and blogging at the young age of 16, learning various blogging strategies and tactics. Over time, he became a successful blogger and digital marketing expert.

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