अपने श्रीराम के प्रति प्रेम की पराकाष्ठा का इससे अच्छा प्रमाण और क्या हो सकता है??

यही कोई 7 वर्ष की उम्र रही होगी हमारी! स्मरण है कि शारदीय नवरात्र की प्रतीक्षा हम एक महीने पहले से ही करते थे। अधिकतर दुर्गा जी रात मे ही आ जाती थीं। माताजी बाल प्रेम की उत्सुकता मे हमे रात मे जगाकर कहती थीं-- "जाबो नाई देखे, दुर्गा जी आई गईं!" हम तुरन्त उठते थे और निराश होकर वापस आ जाते थे क्योंकि रात मे पर्दा लगा होता था। नींद कैसे आती थी इसका वर्णन बहुत बड़ा हो जाएगा।

फिर सुबह उत्सुक मन की अधीरता चरम पर होती थी और हमारे बाल मित्र जी एकदम से पहुँचकर मूर्ति पर विधिवत कमेन्ट्री करते थे। यह कमेंट्री खुसुर-पुसुर वाली ही होती थी। कुछ उदाहरण भी पढ़ लीजिए-

1- अबकी दुर्गाजी के केतना हाथ बाय??

2-अबकी रक्षसवा बहुत भयानक बाय। तबकी पातर रहा अबकी मोट बाय।

3- दुर्गाजी के मुकुटवा छोट बाय, पिछवा चक्र कईसे लगईहैं?

4- अबकी रक्षसवा के तिरशुलिया कईसे मरिहैं, भलवा छोट न पावे।

5- सरस्वती जी बहुत सुन्नर हयीं अबकी। आदि!आदि!


विद्यालय जाना भी अनमने ढंग से होता था। मन नही लगता था। मन बस इसी कल्पना के आनन्द मे गोते लगाता था कि पण्डाल सज गया होगा, लाईट लग गयी होगी, इस बार भी ज्वाला चाचा का वीडियो लगेगा। वीसीआर कैसिट नया आया है, अबकी बार खिचिर खिचिर नहीं करेगा। विद्यालय से लौटना मानों जेल से छूटना प्रतीत होता था।

आते ही पहले तो एक चक्कर पण्डाल का दर्शन करने के बाद ही घर पर दाना-पानी होता था। फिर आरती में खूब आनन्द! प्राणियों मे "सम्भावना हो" बोलने की अशुद्धि "सद्भावना हो" मे बहुत समय बाद सुधरी। हालाँकि "सम्भावना हो" मे भी गलती नही है। सकारात्मक सम्भावना तो होनी ही चाहिए। 

हम और प्रेम जी अपना अपना विशेष बोरा लेकर आते थे और टेन्ट के पोल से सटाकर बैठ जाते थे। रामायण के एक एक दृश्य पर देखते हुए चर्चा चलती रहती। कुछ उदाहरण भी पढ़ लीजिए-

1- अब्बै रामजी चक्र लगाए देहिहैं तो रक्षसवै जवन मांस फेकत हयिन वू चक्रवा सोख लेई।

2- शूर्पनखा के नाक काट लिहिन पर कनवा काटत नाई देखाईस।

3- अबकी गदा सुग्रीव के पड़ी, अबकी गदा बालि के पड़ी इस पर शर्त भी लग जाती थी। 

4- शर्त इस बात पर भी लग जाती थी कि अबकी केकर बाण गायब होई। आदि! आदि!

युद्ध देखने की उत्सुकता अन्य प्रसंगों की अपेक्षा अधिक आनन्द देता था। फिर अधिक रात होने के कारण पिता जी आकर जबरदस्ती घर ले जाते थे। नौ दिन स्वर्ग का आनन्द यहीं रहता था। ऐसा जीवन हमने जीया है, ऐसा आनन्द हम सबने अपने बालपन मे उठाया है। विधर्मी कितना भी अनर्गल प्रलाप कर लें, लेकिन; सनातनी प्रत्येक अवसर जीता है। माता के आगमन पर नृत्य करता है, विसर्जन पर भी नृत्य करता है।जीवन भी नृत्य है और मृत्यु भी नृत्य है। आज हम भले ही इस आध्यात्म को भूल गये हैं पर जिसने भी यह यात्रा प्रारम्भ की होगी वो यह मर्म जानता होगा।


ऐसा रामायण अब कभी भी नही बन पाएगा। 11 वर्षो से देख रहा हूं,आज भी कहीं चल रहा हो तो रुक कर देख लेता हूं। उत्साह वही है,उमंग वही है। अपने श्रीराम के प्रति प्रेम की पराकाष्ठा का इससे अच्छा प्रमाण और क्या हो सकता है??

जय माता दी! जय श्रीराम!

Er. Ritesh Kumar Bhanu

Ritesh Kumar Bhanu is an India-based influencer, digital marketer, blogger, and founder of Tech Ritesh Insight. He started his journey in digital marketing and blogging at the young age of 16, learning various blogging strategies and tactics. Over time, he became a successful blogger and digital marketing expert.

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